DEPRESSION(article on current situation of human being)



कभी आपने 90 km/hr से चल रही गाड़ी में अचानक से लगे डिस्क ब्रेक के झटके को महसूस किया है। इससे कही ज्यादा जोर का झटका लगता है जब हम इतनी तेज रफ़्तार से चल रही ज़िन्दगी में "डिप्रेशन" नामक लाइफ ब्रेकर से टकराते हैं। हमारी ज़िन्दगी तो चल रही होती है पर होती है "मरी हुई," "मुरझाई हुई," मर्ज फैलाने जैसी। समस्त ऊर्जा, आपकी शक्ति, तमाम इच्छाएँ, आपके सपने, आपकी खुद से उम्मीदें, आपका भरोसा, आपके हौसले, आपके बेहतरीन ज़िन्दगी की तमन्ना किसी छोटे से "मानसिक जाल" में तड़प रही होती है। माँ की आँखों का तारा, बाप के मजबूत कंधे, भाई की शक्ति, बहन का रक्षक, सब कहीं ज़िन्दगी से हारा हुआ लड़ रहा होता है। ना किसी से बात करने की चाहत, ना कोई जशन, न कोई उमंग, बस जीते हैं हम गाने भी "गिव मी सम सनशाइन गिव मी सम रे" की तरह का ही सुनते हैं। मन होता होगा कहने का कि "मैं कभी बतलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ," पर शक्ति इतनी छीन हो चुकी होती है कि क्या कहें, "ए ज़िन्दगी गले लगा ले मुझे" गाना सुन कर ही काम चला लेते हैं। हालत कुछ ऐसी होती है की क्या कहे "सम्बेदनाएँ मर चुकी भावनाएँ ख़तम हैं, अब ज़िन्दगी क्या जियूँ, ज़िन्दगी ही ज़ख्म है। जिस प्रकार "दीमक" किताब पर लिखे शब्द नष्ट कर देता है, ठीक उसी प्रकार "डिप्रेशन" हमारे सारे जीये हुए हसींन लम्हों को नष्ट कर देता है। अजीब चलन है ना, किसी को जब बुखार हो तो पूरा ध्यान काम-काज सब बंद होता है, और दो लोग हमेशा साथ होते हैं, लेकिन वही कोई मन से बीमार, डिप्रेशन का शिकार होता है तो उसका मजाक उड़ा लिया जाता है, हम कहते हैं "साला डिप्रेशन," "अरे वो उसकी छोड़ो बस पड़ा रहता है," ऐसे ही कहते हैं ना हम "काम का न काज का, दुश्मन अनाज का"। हाय! क्या बीतती होगी उस पे, जिसने अब आईने में खुद को देखकर मुस्कुराना छोड़ दिया है, जिसके रात अब डरे हुए, सहमे ह

ुए, घुटनों में जागते हुए गुजर जाती है। जिसके खुद के सपने टूटे हुए कांच की तरह लगते हैं, और जिसने हसींन लम्हों का सोचा था, वो कल सुबह सूर्य देखने की कामना कर रहा होता है, अंदर से रोता हुआ बाहर से खुश होने की ढोंग कर रहा होता है। करे भी तो क्या, सबसे बड़ा रोग कहेंगे लोग में, जो कैंसर से भी ज्यादा जानलेवा है। कभी आपने मोमबत्ती को टिमटिमाते देखा है, वो जलने की कोशिश करता है पर फिर फरफराता कर बुझ जाता है। थोड़ी हवा की झोंके कम होती तो जलता भी और रौशनी भी देता हमारा समाज भी उसी हवा के जैसा है जो मरे को और मारने की कोशिश करता है। अजीब है ना इंसान के रूप में, हमें जो दो वरदान "इमेजिनेशन" और "मेमोरी" मिला है हमारे लिए, गले का फ़ंदा बन गया है। हम मेमोरी से पीछे की बातें सोचकर और इमेजिनेशन से भविष्य की सोचकर खुद की लंका को ढाह रहे हैं। एक तो ज़िन्दगी की उम्र इतनी कम, ऊपर से डिप्रेशन, सांसें भी गिन लेता होगा शायद। मुझे अपने शिक्षक की वो बात बहुत साफ़ लगती, कहते थे, "अपने सपने और उसके लिए किए हुए काम के बीच में जगह मत छोड़ो क्योंकि इन जगहों में डिप्रेशन, एंग्जायटी अपना बसेरा बना लेता है, और तुम्हे जंग लगा लोहा बना देता है। एक दिन तारों तले चाँद को देखता हुआ ये सोच रहा था कि इस निजात कैसे पाया जाए, जवाब ये मिला की मन की बीमारी है, मन की ठीक कर सकता है, न कोई प्राणायाम, न कोई मोटिवेशन काम आएगा, और हां, गति ही जीवन है ये ध्यान रखना पड़ेगा, और सारे गुड़ के पेड़ गन्ने जो "पछतावा" है को त्यागना पड़ेगा। बात बस छोटी सी है, माना की है अँधेरा घना, पर दीया जलाना कहाँ मना और चरित्र जब पवित्र हैं, तो क्यों ये दशा तेरी इन पापियों को हक नहीं की ले परीक्षा तेरी, तू खुद की खोज में निकल, तू किस लिए हताश है, तू चल वज़ूद की समय को भी तलाश है। आख़िरी में ये कहना चाहूगा की अगली बार जब भी ऐसे मिले, मुस्कुरा कर हाल कर हाल जरूर पूछे क्योंकि **MENTAL PAIN IS LESS DRAMATIC THAN PHYSICAL PAIN BUT IT IS MORE COMMON AND HARD TO BEAR.**

रघुपति झा

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