CALENDAR(ARTICLE ON CHANGING PHASE OF LIFE)
कभी कैलेंडर को गौर से देखने पर ये एहसास होता है, ना जाने इन आँखों ने कितने कैलेंडर के पलटते पन्नों को देखा होगा, कैलेंडर के महज पन्ने ही पलटते हैं, पर अपनी पूरी ज़िंदगी ही बदल जाती है।
बच्चे से कब बड़े हो गए पता ही नहीं चला, कब माँ-बाप से दूर रहना सीख लिया, कब इतने बड़े हो गए कि भविष्य की सोचने लगे, और खुद को स्वतंत्र होने से रोकने लगे। हमने ज़िंदगी पर खुद पाबंदी लगा दी है, कभी बारिश हो तो भीगने का मन नहीं करता, सर्दी ज़ुखाम की सोचने लगते हैं।
कैलेंडर के बदलते पन्नों के साथ ज़िंदगी की तस्वीर ही बदल गई, ज़िंदगी भी क्या रंगीन हुआ करती थी जब मैंने कैलेंडर देखना सीखा था, अच्छे थे वो बचपन के दिन जब घड़ी देखना नहीं आता था, कम से कम समय की पाबंदी तो नहीं थी।
जब घड़ी देखना माँ ने सीखाया था, तो बहुत खुशी हुई थी, घर में किसी को भी समय बताना हो तो मैं ही दौड़ता था, अब उसी माँ से जीभर कर बात करने के लिए घड़ी नहीं मिलती।
ज़िंदगी अब ईट पत्थर से बने जंगल में सिमट कर रह गई है। वो भी क्या दिन थे जब पूरी गली अपनी थी। कभी कभी सोचता हूँ कि ये पूरी ज़िंदगी काग़ज़ में ही सिमट कर रह गयी है। काग़ज़ की कॉपी, काग़ज़ की किताबें, काग़ज़ के पैसे और हम भी काग़ज़ के गम के दो बूंदों से गल जाए।
सोचता हूँ कि ये आँखें जब कैलेंडर देखना बंद कर देगा, उससे पहले इसे अपने तरीके से जी लू, वो मार्ग चुनूं जो पल-पल आंतरिक सुकून दे, आज़ाद पंछी की तरह सैर करूं, ताकि जीवन के आखिरी छवन में ये न लगे कि जीवन "BUSY IN NOTHING" में बीत गई। मैं इस असमंजस में हूँ कि जीवन कब तक है पता नहीं, कब आखिरी पल होगा पता नहीं, तो इसे कैसे जियूं कि पछतावा न रहे, क्यूंकि हर चीज़ को आप 24 घंटे के अंदर समेट नहीं सकते, और 24 घंटे के बाद की योजना आप कर नही सकते। मुझे लगता है कि पछतावा तब नहीं रहेगा जब इच्छाएँ नहीं होंगी और बिना इच्छाओं के ये जीवन गतिशील रहेगा ही नहीं।
बहुत सोचने के बाद मैंने ये देखा जाना, कि इच्छाएँ अनंत हैं, अनंत ये ब्रह्माण्ड, और अनंत और विचलित हमारा मन। एक पंक्ति याद आती है जो कहता है "मन के हारे हार है, मन के जीते जीत"। इसलिए जवाब ये मिला की जो भी करे पुरे मन और दिल से करे क्यूंकि इसे करवाने वाला अनंत ब्रह्माण्ड का स्वामी ब्रह्म है।
यदि आपके पिता आपकी बुराई नहीं सोच सकते तो परमपितामह कैसे??
**रघुपति झा**
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