संशय

जीवन के इस रणभूमि में ,

क्या सही है ? क्या गलत है ?

मैं खड़ा अर्जुन के भांति,

आगे "समर" पीछे वजूद तिरस्कृत है।  

कभी मन चाहे गगन को छू लूँ ,

कभी जीने की तलब  ख़त्म है। 

कभी संसार को कुटुम्ब  ये माने,

कभी ये खुद से भी घृणित है। 

वसुदेव ने गीता का उपदेश दिया था, 

सारथी मेरा "मन" इस असमंजस  में ,

क्या सही है ? क्या गलत है ? 


जीवन के इस रणभूमि में ,

संदेह गलत है, अहं  गलत है। 

चंचल मन का सैर गलत है,

छल गलत है,डर का हर पल गलत है। 

विश्वास "सत्य" है , हिम्मत सच है ,

आत्म आंकलन का हर पल सही है,

डटे  रहने का आत्मबल सही है। 

उलझित जीवन को जीना गलत है ,

हर्षित जीवन में  रहना सही है। 

जीवन के इस रणभूमि में ,

"रघु" सही है, "रघु" गलत है ,

जीवन जबकि "सही -गलत के बीच फासले का पल है"। 

-रघुपति  झा 


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