GUFTAGU
आज फिर तारो तले गया था मैं रात को , कह रही थी चाँदिनी भूल गया क्या अपने वजूद को, देखे थे जो सपने मेरी गोद में भूल गया क्या सब वो , बेकार की बातों में पड़ा क्यों भटक रहा दर -बदर था जो तेरा आत्मविश्वास निगल गया क्या "अहम" वो। मैं सहम सा उठा ,विचिलित सा हो पड़ा कर रहा क्या गलतियाँ सोचने ये लगा चलने लगी शीतल सी हवा ,छू गयी मेरे तन को, झकझोर दिया उसने मेरे अंतर्मन को। नज़र गयी उस चाँद पे "चेता" रहा था मुझे जीवन की आपा-धापी में क्या मिला है तुझे सुकून था जो ख़तम हुआ ,बैचैन तू फिर रहा इंसान तूने तो इंसानियत को ही बेच दिया आज फिर तारो तले गया था मैं रात को। चाँदिनी थी रात मगर ,मैं अँधेरे में था बड़ा , क्या सही क्या गलत इस असमंजस में खड़ा। मेरे सपने और हकीकत में था फासला बड़ा भाग-दौड़ थी फ़िज़ूल की कुछ ना हाथ था लगा। भावनाएँ थी...